क्यों मनाते हैं महाशिवरात्रि? जानिए क्या है इससे जुड़ी मान्यता और दूसरी बातें

महाशिवरात्रि भारतीयों का एक प्रमुख त्यौहार है। यह भगवान शिव का प्रमुख पर्व है। माघ कृष्ण पक्ष त्रयोदशी को महाशिवरात्रि पर्व मनाया जाता है। माना जाता है कि सृष्टि का प्रारम्भ इसी दिन से हुआ।

महाशिवरात्रि शिवजी का महापर्व यह पर शिव विवाह के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है अनजाने में किसी प्राणी मात्र द्वारा एक बेलपत्र भी शिवलिंग पर चढ़ जाए तो कोर्ट जन्मों के पापों को नीलेश्वर हर लेते हैं और इस जीवन को समृद्ध बनाकर अंत समय में मोक्ष प्रदान करते हैं और शिवरात्रि में वर्णित चारों प्रहर बेलपत्र और गंगाजल से पूजा द्वारा तो साक्षात मोक्ष ही मिल जाता है।

फाल्गुन के महीने का 14 वां दिन था जिस दिन शिव ने पहली बार खुद को लिंग रूप में प्रकट किया था। इस दिन को बहुत ही शुभ और विशेष माना जाता है और महाशिवरात्रि के रूप में मनाया जाता है। इस दिन शिव की पूजा करने से उस व्यक्ति को सुख और समृद्धि प्राप्त होती है।

भारत के अधिकतर जनमानस यही जानते हैं कि महाशिवरात्रि भगवान शिव और माता पार्वती के विवाह के उपलक्ष में मनाया जाता है। लेकिन कुछ विद्वानों का मानना है कि शिवरात्रि के दिन ही भगवान शिव ने कालकूट नाम का विश किया था। जो सागर मंथन के समय समुद्र से निकला था, परंतु शिवपुराण में एक शिकारी से जुड़ी कथा का वर्णन किया गया है। आज की इस लेख में हम आपको शिवपुराण में वर्णित महाशिवरात्रि की कथा बताने जा रहे हैं।

शिवपुराण के कोटिरुद्रसंहिता में वर्णित कथा के अनुसार पौराणिक काल में किसी वन में एक भील रहता था। जिसका नाम कुरुद्रुह था। उसका परिवार पड़ा था। वह बलवान और क्रूर स्वभाव का होने के साथ ही क्रूरतापूर्ण कर्म भी किया करता था। वह प्रतिदिन में जाकर हिरण और अन्य जानवरों को मारता और वहीं रहकर नाना प्रकार की चोरियां करता था।

उसने बचपन से ही कभी कोई शुभ काम नहीं किया था जिस प्रकार वन में रहते हुए उस दुरात्मा भील का बहुत समय बीत गया। तदनंतर एक दिन बड़ी सुंदर एवं शुभ कारक शिवरात्रि आयी। किंतु वह दुरात्मा आत्मा में घने जंगल में निवास करने वाला था, इसलिए उस व्रत के बारे में नहीं जानता था।

उसी दिन उस भील के माता पिता और पत्नी भूख से व्याकुल होकर उससे खाने की मांग करने लगे। उनके बार-बार याचना करने पर वह भील तुरंत धनुष लेकर वन की ओर चल दिया और हिरणों के शिकार के लिए वन में घूमने लगा। संयोग से उसे उस दिन कुछ नहीं मिला और सूर्य अस्त हो गया। इससे उसको बड़ा दुख हुआ और वह सोचने लगा कि अब मैं क्या करूं कहां जाऊं, आज तो कुछ नहीं मिला; घर में जो बच्चे हैं उनका तथा माता-पिता का क्या होगा जो मेरी पत्नी है उसकी भी क्या दशा होगी। अतः मुझे कुछ लेकर ही घर जाना चाहिए। ऐसा सोचकर वह एक जलाशय के पास पहुंचा।

वहां जलजीव का इंतजार करने लगा कि उसको मारकर घर ले जाऊंगा। इसके बाद वह समीप एक बेल के पेड़ पर जल लेकर चढ़ गया और बैठ गया। इंतजार करते करते रात हो गयी और जब पहला प्रहर आरंभ हुआ तो एक प्यासी हिरणी वहां आयी। जैसे ही उसका शिकार करने के लिए धनुष हुआ तो पेड़ से कुछ बेल पत्र और जल नीचे स्थापित शिवलिंग पर अनजाने में गिर पड़ा। इससे पहले प्रहर की पूजा हो गयी। कुछ देर बाद वहां एक दूसरी हिरणी आयी और पहले की भांति उसे मारने के लिए बाण उठाया तो भगवान शिव की दूसरे प्रहर की पूजा हो गयी। ऐसे ही चलता रहा और तीसरे प्रहर की भी पूजा हो गयी।

फिर एक हिरण का झुंड आया जिसके शिकार के लिए उसने पुनः बाण चढ़ाया और शिवलिंग की चौथे प्रहर की पूजा हो गयी। अंत में उसे ज्ञान होता है और वह किसी हिरण का शिकार नहीं करता है। इसपर प्रसन्न होकर भगवान शंकर प्रकट हुए और उसे सुख समृद्धि का वरदान देकर गुह नाम प्रदान किया। यह वही गुह था जिसके साथ त्रेतायुग में भगवान श्री राम ने मित्रता की थी। महाशिवरात्रि की यह कथा यहीं समाप्त होती है।


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