कर्णप्रयाग में अलकनंदा नदी और पिण्डर हिमनद का संगम होता है।

कर्णप्रयाग धार्मिक पंच केदारों में देवप्रयाग तथा रूद्रप्रयाग से पहले तीसरा प्रयाग तथा मनोहर स्थान है। 

कर्णप्रयाग उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत गढ़वाल मण्डल के चमोली जिले का एक कस्बा है।यह अलकनंदा तथा पिण्डर नदियों के संगम पर स्थित है। पिण्डर का एक नाम कर्ण गंगा भी है, जिसके कारण ही इस तीर्थ संगम का नाम कर्ण प्रयाग पडा। यहां पर उमा मंदिर और कर्ण मंदिर दर्शनीय है। यहाँ से राष्ट्रीय राजमार्ग 7 और राष्ट्रीय राजमार्ग 109 गुज़रते हैं। अलकनंदा एवं पिंडर नदी के संगम पर बसा कर्णप्रयाग धार्मिक पंच प्रयागों में तीसरा है जो मूलरूप से एक महत्त्वपूर्ण तार्थ हुआ करता था। बद्रीनाथ मंदिर जाते हुए साधुओं, मुनियों, ऋषियों एवं पैदल तीर्थयात्रियों को इस शहर से गुजरना पड़ता था। यह एक उन्नतिशील बाजार भी था और देश के अन्य भागों से आकर लोग यहां बस गये क्योंकि यहां व्यापार के अवसर उपलब्ध थे। इन गतिविधियों पर वर्ष 1803 की बिरेही बाढ़ के कारण रोक लग गयी क्योंकि शहर प्रवाह में बह गया। उस समय प्राचीन उमा देवी मंदिर का भी नुकसान हुआ। फिर सामान्यता बहाल हुई, शहर का पुनर्निर्माण हुआ तथा यात्रा एवं व्यापारिक गतिविधियां पुन: आरंभ हो गयी।

पौराणिक सन्दर्भ:-
कर्णप्रयाग का नाम कर्ण पर है जो महाभारत का एक केंद्रीय पात्र था। उसका जन्म कुंती के गर्भ से हुआ था और इस प्रकार वह पांडवों का बड़ा भाई था। यह महान योद्धा तथा दुखांत नायक कुरूक्षेत्र के युद्ध में कौरवों के पक्ष से लड़ा। एक किंबदंती के अनुसार आज जहां कर्ण को समर्पित मंदिर है, वह स्थान कभी जल के अंदर था और मात्र कर्णशिला नामक एक पत्थर की नोक जल के बाहर थी। कुरूक्षेत्र युद्ध के बाद भगवान कृष्ण ने कर्ण का दाह संस्कार कर्णशिला पर अपनी हथेली का संतुलन बनाये रखकर किया था। एक दूसरी कहावतानुसार कर्ण यहां अपने पिता सूर्य की आराधना किया करता था। यह भी कहा जाता है कि यहां देवी गंगा तथा भगवान शिव ने कर्ण को साक्षात दर्शन दिया था। पौराणिक रूप से कर्णप्रयाग की संबद्धता उमा देवी (पार्वती) से भी है। उन्हें समर्पित कर्णप्रयाग के मंदिर की स्थापना 8वीं सदी में आदि शंकराचार्य द्वारा पहले हो चुकी थी।

कहावत है कि उमा का जन्म डिमरी ब्राह्मणों के घर संक्रीसेरा के एक खेत में हुआ था, जो बद्रीनाथ के अधिकृत पुजारी थे और इन्हें ही उसका मायका माना जाता है तथा कपरीपट्टी गांव का शिव मंदिर उनकी ससुराल होती है। कर्णप्रयाग नंदा देवी की पौराणिक कथा से भी जुड़ा हैं; नौटी गांव जहां से नंद राज जाट यात्रा आरंभ होती है इसके समीप है। गढ़वाल के राजपरिवारों के राजगुरू नौटियालों का मूल घर नौटी का छोटा गांव कठिन नंद राज जाट यात्रा के लिये प्रसिद्ध है, जो 12 वर्षों में एक बार आयोजित होती है तथा कुंभ मेला की तरह महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। यह यात्रा नंदा देवी को समर्पित है जो गढ़वाल एवं कुमाऊं की ईष्ट देवी हैं। नंदा देवी को पार्वती का अन्य रूप माना जाता है, जिसका उत्तरांचल के लोगों के हृदय में एक विशिष्ट स्थान है जो अनुपम भक्ति तथा स्नेह की प्रेरणा देता है। नंदाष्टमी के दिन देवी को अपने ससुराल–हिमालय में भगवान शिव के घर –ले जाने के लिये राज जाट आयोजित की जाती है तथा क्षेत्र के अनेकों नंदा देवी मंदिरों में विशेष पूजा होती है।

आदि बद्री:-
कर्णप्रयाग की संस्कृति उत्तराखंड की सबसे पौराणिक एवं अद्भुत नंद राज जाट यात्रा से जुड़ी है। नौटी गांव (20 किलोमीटर दूर) के नौटियाल इस क्षेत्र के सर्वप्रथम वासी थे। वे कनक पाल के साथ यहां आये थे। कनक पाल ने 9वीं शताब्दी में पंवार वंश की स्थापना की थी। कर्णप्रयाग की संस्कृति मिश्रित है। यहां के धुनियार सदियों पहले तीर्थयात्रियों को पिंडर नदी के पार सुरक्षित पहुंचाते थे ताकि वे बद्रीनाथ की यात्रा जारी रख सकें। कर्णप्रयाग के निकट गांवों में रहने वाले चरवाहे जो राजस्थान, महाराष्ट्र एवं गुजरात के परिवारों के वंशज थे, वे कर्णप्रयाग आकर यात्रियों को दूध एवं मेवे की आपूर्ति किया करते थे। यहां के कुमाऊंनी परिवार भी मसालों का व्यापार करने आएं और यहीं बस गये और ऐसी ही डिमरी एवं भंडारी ब्राह्मण भी अपनी जीविका चलाने के लिये किया। आज शहर के वासी इन्हीं लोगों के वंशज हैं। बीते वर्षों की तरह आज भी कर्णप्रयाग के लोग अधिकांशत: उन तीर्थयात्रियों एवं यात्रियों की सेवाओं में नियोजित हैं, जो चारधामों की यात्रा पर जाते हुए यहां रूकना पसंद करते हैं।


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