जिस धरोहर ने दिया शहर को बड़ा नाम, आज वही ढूंढ रही खुद के निशां

लुधियाना, जेएनएन। लुधियाना का अब तक का सफर मुगलकाल से पूर्व, मुगलकाल, ब्रिटिश शासनकाल और स्वतंत्र भारत का रहा है। ‘मीरहोता’ से ‘लोधियाना’ और बाद में ‘लुधियाना’। लुधियाना को पहचान देने वाली धरोहर अब शहर में स्वयं के निशां ढूंढती महसूस होती है। इसके खंडहर होने का सिलसिला दशकों से चल रहा है। लेकिन स्वतंत्र भारत के किसी शासक ने इस ऐतिहासिक धरोहर को संभालने व संजोये रखने के बारे में सोचा तक नहीं। लुधियाना का लोधी किला ही है, जिसने मीरहोता गांव को लोधियाना का नाम दिया। जिसे बाद में लुधियाना कहा जाने लगा।

 

लुधियाना का लोधी किला सिर्फ मुगलकालीन शासक सिकंदर लोधी की वजह से ऐतिहासिक नहीं है। बल्कि भारत की जंग-ए-आजादी की वजह से भी यह किला सिर्फ लुधियानवियों के लिए नहीं, बल्कि पूरे देश के लिए ऐतिहासिक है। 15वीं शताब्दी में सिकंदर लोधी ने अपने साम्राज्य में अलग-अलग जगहों पर छावनियों की स्थापना की। जहां-जहां सिकंदर लोधी के शासन की सीमाएं थी, वहां-वहां लोधी ने अपने जरनैलों के जरिए छावनियों की स्थापना करवाई और बाद में उसे किले का नाम दे दिया। जिनमें से लुधियाना का लोधी किला भी शामिल है।

 

सिकंदर लोधी ने अपने दो जरनैलों यूसूफ खान और निहंग खान को पंजाब भेजकर छावनियां स्थापित करने को कहा। निहंग खान के जिम्मे सतलुज के किनारे आखिरी सीमा पर इस किले को बनाने की जिम्मेदारी मिली तो यूसूफ खान ने सुल्तानपुर लोधी का किला बनवाया। निहंग खान ने दरसे के किले को बनाने की जिम्मेदारी अपने बेटे जलाल खान को दी। जलाल खान ने 15वीं शताब्दी में इस किले का निर्माण किया। उसी समय किले के आसपास शहर की स्थापना की गई।

 

इतिहासकार बताते हैं कि उस समय सतलुज के किनारे एक गांव मीरहोता था जिसे विकसित करके जलाल खान ने लोधियाना बनाया। बाद में यहां अंग्रेजों का शासन आया तो सतलुज तक उनके राज्य की सीमा तय थी। ऐसे में उन्होंने भी इस किले को छावनी के तौर पर इस्तेमाल किया।

1857 में इस किले पर आजाद फौजियों ने किया था कब्जा


इतिहासकार मोहम्मद उस्मान रहमानी बताते हैं कि यह किला स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ा हुआ है। उन्होंने कहा कि जब मेरठ में मंगलपांडे ने बगावती सुर अपनाकर अंग्रजों के खिलाफ आवाज बलुंद की तो उस समय लुधियाना छावनी में भी फौजियों ने अंग्रेज शासन से बगावत की और मौलाना शाह अब्दुल कादिर लुधियानवी के नेतृत्व में इस छावनी पर अपना कब्जा कर लिया था। हालांकि कुछ दिन बाद अंग्रेजों ने फिर से इस पर कब्जा कर दिया था।

सुनेत गांव से लाई गई थी ईंटें


दरेसी के पास किला बनाने के लिए लाखों की तादात में ईंटों की जरूरत थी। लेकिन आसपास कहीं भी ईंटें और मिट्टी नहीं मिली। मिट्टी अगर आसपास से लेते तो वहां पर जमीन गहरी हो जाती। तब किसी ने जलाल खान को बताया कि सुनेत गांव की ऊंचाई ज्यादा है इसलिए वहां से मिट्टी निकालकर ईंटें बनाई गई और उससे किले का निर्माण हुआ।

किले से बाहर निकलने का था खुफिया रास्ता


जलाल खान ने जब किले का निर्माण करवाया था, तब उन्होंने किले से बाहर निकलने का एक खुफिया भूमिगत रास्ता बनाया था। बताया जाता है कि यह रास्ता इसलिए बनाया गया था ताकि बाहरी आक्रमण के वक्त राजा और प्रमुख लोगों को यहां से बाहर निकाला जा सके। जबकि कुछ इतिहासकार मानते हैं कि जब मुगल सल्तनत कमजोर पड़ रही थी, तब लुधियाना के कुछ हिस्से समेत इस किले पर महाराजा रणजीत सिंह ने कब्जा कर लिया था। करीब तीन साल तक उनका इस किले पर कब्जा रहा और उन्होंने ही फिल्लौर स्थित अपने किले में जाने के लिए यह भूमिगत रास्ता तैयार करवाया था। अब यह रास्ता पूरी तरह से बंद हो चुका है।

किले के आसपास बसा किला मोहल्ला


लोधी किला करीब 5.6 एकड़ जमीन में बनाया गया था। जब प्रशासन ने किले की देखरेख नहीं की तो किले के बड़े हिस्से पर कब्जा हो गया है, जिससे किला अब दिखता ही नहीं है। किले के आसपास एक मोहल्ला बसाया गया है, जिसे ‘किला मोहल्ला’ नाम दिया गया।

 

 

खंडहर बन गया किला


सिकंदर लोधी की छावनी, बाद में अंग्रेजों की छावनी रहा यह किला देश आजाद होने के बाद भी लंबे समय तक छावनी बना रहा। सिख रेजीमेंट यहां पर काफी समय तक डटी रही। लेकिन जैसे ही सिख रेजीमेंट इस किले से निकली उसके बाद किसी ने भी इसकी देखभाल नहीं की और यह विरासत खंडहर हो गई। अब किले के अवशेष मात्र रह गए हैं। प्रशासन ने किले में कहीं भी कोई साइन बोर्ड तक नहीं लगाया है।

 


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